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क्या है श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद? जिसमें हाईकोर्ट ने दी…..

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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद मामले में बड़ा फैसला सुनाया है। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद हिंदू पक्ष को बड़ी राहत मिली है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुरुवार को शाही ईदगाह के 18 मामलों में से 17 केसों की सुनवाई की। सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने मथुरा शाही ईदगाह परिसर में सर्वे के लिए कमिश्नर की नियुक्ति की मंजूरी दे दी है। हालांकि सर्वे कब से शुरू होगा इसकी तारीख आनी अभी बाकी है। इससे पहले हम आपको श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद के बारे में जानकारी देंगे।

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पूरा विवाद 13.37 एकड़ जमीन के मालिकाना हक को लेकर है। इस जमीन के 11 एकड़ में श्रीकृष्ण जन्मभूमि है तो वहीं बाकी बचे 2.37 एकड़ में शाही ईदगाह मस्जिद बनी है। दोनों एक-दूसरे लगी हैं। इसको लेकर वर्षों से विवाद चला आ रहा है। हिंदू पक्ष पूरी जमीन श्रीकृष्ण जन्मभूमि की होने का दावा कर रहा है तो वहीं मुस्लिम पक्ष इसे गलत बता रहा है। काशी की ज्ञानवापी मस्जिद की तरह इस मंदिर-मस्जिद का विवाद भी काफी पुराना है।

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जानकार बताते हैं कि इस विवाद की शुरुआत 350 साल पहले हुई थी, औरंगजेब का शासन हुआ करता था। इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो बात 1670 की है। जब दिल्ली की गद्दी पर बैठे औरंगजेब ने मथुरा की श्रीकृष्ण जन्मस्थान को तोड़ने का आदेश जारी किया था। इसके एक साल पहले ही काशी के मंदिर को तोड़ा गया था। बादशाह का आदेश मिलते ही मंदिर को तरंत धराशायी कर दिया गया था। इसी जमीन पर फिर शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण कराया गया था।

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इतिहास के जानकार बताते हैं कि मस्जिद बनने के बाद ये जमीन मुसलमानों के हाथ में चली गई थी। करीब 100 तक यहां हिंदुओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। 1770 के समय मुगल-मराठा युद्ध हुआ। इस युद्ध में मराठों के हाथ बाजी लगी। इसके बाद उन्होंने यहां फिर से मंदिर बनाया दिया था। मंदिर धीरे-धीरे कमजोर होता गया। एक बार भूकंप की चपेट में आने के कारण ये मंदिर पूरी तरह से ध्वस्त हो गया था।

19वीं सदी में अंग्रेज मथुरा पहुंचे और 1815 में इस जमीन को नीलाम कर दिया था। उस समय काशी के राजा ने इस जमीन को खरीद लिया था। राजा की इच्छा यहां मंदिर बनवाने की थी, लेकिन मंदिर बन नहीं सका था। 100 साल तक ये जगह खाली पड़ी रही। इसके बाद फिर विवाद शुरू हो गया।

100 साल तक चले इस विवाद के बाद 1944 में ये जमीन उद्योगपति जुगल किशोर बिड़ला ने खरीद ली थी। 1948 में जब देश आजाद हुआ तो 1951 में श्रीकृष्ण जन्मस्थान ट्रस्ट बना। इसके बाद ये जमीन ट्रस्ट को दे दी गई। ट्रस्ट ने चंदे के पैसे से 1953 में मंदिर का निर्माण शुरु करवाया जो 1958 तक चला। 1958 में एक नई संस्था बनी, जिसका नाम रखा गया था श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान। इसी संस्था ने 1968 में मुस्लिम पक्ष के साथ एक समझौता किया। इस समझौते में कहा गया था कि जमीन पर मंदिर और मस्जिद दोनों रहेंगे। हालांकि इस समझौते का कभी कोई कानून वजूद ही नहीं रहा है।

सबसे पहले इस केस में रंजना अग्निहोत्री नामक महिला ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद को लेकर याचिका दायर करके सनसनी फैला दी थी। याचिका में महिला ने सर्वे के लिए कमिश्नर की नियुक्ति की मांग की थी। इसके बाद कोर्ट में ईदगाह मस्जिद के सर्वे को लेकर कई मामले दायर हुए हैं। हाईकोर्ट में इस समय ईदगाह मस्जिद को लेकर 18 याचिका दायर हैं, जिन पर सुनवाई चल रही है।

गुरुवार को हाईकोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के बाद हिंदू पक्ष को बड़ी राहत मिली है। कृष्ण जन्मभूमि मामले में हाईकोर्ट के फैसले पर हिंदू पक्ष के वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा है कि इलाहाबाद HC ने हमारे आवेदन को स्वीकार कर लिया है, जहां हमने अधिवक्ता आयुक्त द्वारा (शाही ईदगाह मस्जिद) के सर्वेक्षण की मांग की थी। सर्वे कैसे और कब से शुरू होगा? ये 18 दिसंबर को तय किया जाएगा। उन्होंने कहा, शाही ईदगाह मस्जिद के तर्कों को खारिज कर दिया है। मेरी मांग थी कि शाही ईदगाह मस्जिद में हिंदू मंदिर के बहुत सारे चिन्ह और प्रतीक हैं, और वास्तविक स्थिति जानने के लिए एक अधिवक्ता आयुक्त की आवश्यकता है। यह अदालत का एक ऐतिहासिक फैसला है।

श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान और शाही मस्जिद ईदगाह के बीच पहला मुकदमा 1832 में शुरू हुआ था। तब से लेकर विभिन्न मसलों को लेकर कई बार मुकदमेबाजी हुई लेकिन जीत हर बार श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान की हुई। श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान के सदस्य गोपेश्वर नाथ चतुर्वेदी ने बताया कि पहला मुकदमा 1832 में हुआ था। अताउल्ला खान ने 15 मार्च 1832 में कलैक्टर के यहां प्रार्थनापत्र दिया। जिसमें कहा कि 1815 में जो नीलामी हुई है उसको निरस्त किया जाए और ईदगाह की मरम्मत की अनुमति दी जाए। 29 अक्टूबर 1832 को आदेश कलैक्टर डब्ल्यूएच टेलर ने आदेश दिया जिसमें नीलामी को उचित बताया गया और कहा कि मालिकाना हक पटनीमल राज परिवार का है। गोपेश्वर चतुर्वेदी ने बताया कि इस नीलामी की जमीन में ईदगाह भी शामिल थी। इसके बाद तमाम मुकदमे हुए। 1897, 1921, 1923, 1929, 1932, 1935, 1955, 1956, 1958, 1959, 1960, 1961, 1964, 1966 में भी मुकदमे चले।

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