आत्मनिर्भरता के हौसलों और स्वरोजगार की उम्मीदों पर आज भी कैसे खरी उतर रही हैं, सिलाई मशीनें
बिलासपुर – रेडीमेड परिधान के दौर में भी सिलाई मशीन के प्रति लोगों का रुझान कम नही हुआ है। बल्कि लंबे अरसे के बाद भी कपड़ा सिलाई सीखने के प्रति युवतियों में रूझान देखा जा रहा है। इसीलिए होलसेल सिलाई मशीन एजेंसियों में भी साल भर इसकी खरीदारी करने वालों को देखा जा सकता है।
सिलाई मशीन जो न केवल एक दर्जी की जरुरत है बल्कि अब इसे बेटी के शादियों में भी भेंट स्वरुप दिया जाता है। यह जरुर है कि पहले के सिलाई मशीन के कलपूर्जे काफी मजबूत होते थे बल्कि अब फैंसी सामानों का दौर चल पड़ा है लिहाजा मशीन का वजन कम और दाम दोगूनी हो गई है।
कीमत हुई दोगूनी
आज से 20-25 वर्ष पूर्व यह मशीन किसी दर्जी के घर लोगों के कपड़े सिलते पाए जाती थीं या फिर किसी संभ्रांत घरों की भी शोभा हुआ करती थीं। उन दिनों इसकी कीमत 15 सौ से 2 हजार तक हुआ करती थी। जबकि आज इसकी कीमत 5 से 7 हजार रुपए तक हो गई है। विक्रेता बताते हैं समय के साथ साथ लोहे का रेट भी बढ़ा है जिसकी वजह से इसकी कीमतों में इजाफा हुआ है। लेकिन मांग में कमीं नही है। उन दिनों की तरह आज भी लूधियाना व दिल्ली में बनी ही सिलाई मशीनें ही शहर की प्रमुख एजेसियो में उपलब्ध रहती है।
रोजगार का नया आयाम
सिलाई मशीन इन दिनों आत्मनिर्भरता का पर्याय बन गया है। इसीलिए विशेषकर महिलाएं और युवतियां अब सिलाई के गुर सीखकर रोजगार का नया आयाम स्थापित कर रही हैं। शहरी क्षेत्र के लगभग सभी गली-मोहल्लों में सिलाई प्रशिक्षण सेंटर संचालित है। जिसमें नौकरी की आस लगाकर समय न गंवाते हुए युवतियां प्रशिक्षित होती है। वहीं महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से जब से शासन प्रशासन ने उन्हें स्वरोजगार से जोड़ा है ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं और युवतियां भी कपड़े सिलाई के सभी तरीकों से रुबरु होकर आत्मनिर्भर बनने लगी हैं। खास बात यह भी है कि आज के दौर में भी ज्यादातर युवतियां, रेडीमेड के बदले, कपड़ा खरीदकर सूट सिलवाने को अधिक तरजीह देती हैं, इससे न केवल दर्जियों को फायदा होता है बल्कि प्रशिक्षित युवतियां अपनी मनपसंद डिजायनों से कपड़े को मनमाफिक तैयार कर खूद को बेहतर लुक दे रही हैं। (उषा सोनी)