छत्तीसगढ़

यादों में ही सिमट कर रह गया सतबहिनी बांध — जाने इस प्राचीन जलाशय की जमीनी हकीकत

(मुन्ना पाण्डेय ) : लखनपुर- (सरगुजा) आज के दौर में जलसंसाधन विभाग द्वारा बनाये गये बड़े से बड़े मशहूर जलाश्य परियोजना का  जिक्र सरकारी दस्तावेजों में दर्ज है । उन सिंचाई परियोजना के बारे में लोग जानते हैं। परन्तु जब सरगुजा  क्षेत्र में सघन वन रहे होंगे  और आबादी के नाम पर इक्का दुक्का मकान वाले बसाहट को ही बस्ती कहा जाता रहा होगा मानव जाति की जनसंख्या बहुत कम रही होगी।

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ऐसे वक्त में बिना संसाधन के किसी जलाशय ( बांध) का निर्माण कराया जाना  बड़ी ही चुनौतीपूर्ण कार्य रही होगी लोग कंधों में मिट्टी ढोकर नदी के प्रवाहित जल धारा को रोक कर जल संग्रहण के नजरिए से बांध का निर्माण किया करते रहे होंगे इसका प्रमाण मिलता है।ऐसे ही एक प्राचीन बांध जिक्र सरगुजा जिले के लखनपुर से महज दो कि0  मी0 के दूरी पर स्थित  ग्राम जूनाडीह और कुंवरपुर  सीमा पर चुल्हट नदी में करमी घुटरा (जगल) को जोड़कर  बांध का निर्माण  सदियों पहले न जाने किस हुक्मरान के द्वारा कराया गया था कोई नहीं जानता अलबत्ता प्रचलित किंवदंतियो से पता चलता है कि इस बांध का नाम सतबहिनी था। जो सातवाहिनी का अपभ्रंश है।

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तय है कि बांध में सात फाटक रहें होंगे जिससे पानी निकाला जाता रहा होगा इस बांध का कोई लिखित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता परन्तु बांध के फूटने के बाद तीन खंड एक जंगल के तरफ दूसरा भाग नदी के बीचोबीच और तीसरा भाग  बांध का मेड अपने होने की गवाही दे रहे हैं।  अपने मूल स्थान पर बाध का अवशेष (मेड)   जलाश्य  होने की तस्दीक कर रही है। बांध में पानी निकलने सात फाटक बनाये गये रहे होंगे मिलने वाली चौडे चौकोर ईंट  बांध गेट का सबूत है   प्रयुक्त पुराने ईंट से पता चलता है कि ईंटों को   लकड़ीयो से जलाया गया रहा  होगा ईंट निर्माण का चलन शुरु हो चुकी रही होगी। इट को जोड़ने में   सुर्खी चूने का प्रयोग किया जाकर पानी निकलने वाले फाटक बनाया  गया रहा होगा। नमूने के तौर पर देखे जा सकते हैं।  बताते हैं कर्मी घुटरा वनखंड के तराई वाले भाग में बांध के नीचे एक बस्ती बसा हुआ था।  बांध के निचले हिस्से के मैदानी भाग में विद्यमान शिवमन्दिर तथा  मंदिर के इर्दगिर्द खड़े
आम तथा दूसरे प्रजापति के पेड़  इस बात के साक्षी हैं। बांध का वेस्टवियर अर्थात अधिक पानी निकाले जाने का नहर बांध के ठीक पश्चिम दिशा में मौजूद हैं।  बांध से निकल कर  वर्तमान रानी बगीचा के पास पुनः चुल्हट नदी में मिल जाती है। संगम होकर अपने गंतव्य की ओर प्रवाहित हो रही है।  मौजूदा वक्त में बांध के वेस्टवियर  वाले भूभाग से बिलासपुर अम्बिकापुर मुख्य मार्ग गुजरती है। कालांतर में बांध का वेस्टवियर तालाब (भावा ढोढगा) भावा अर्थात बड़े नाली के रूप में आज भी विद्यमान है । कभी इस तालाब के उत्तर में  ईंट गारे से एक बड़ी नाली बनीं हुईं थीं।नीजी मिल्कियत होने कारण आज खेत बन गये है ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि वेस्टवियर के पानी का सप्लाई उस काल में बांध के पश्चिमी क्षेत्र में बने नहर से किया जाता रहा होगा। जिससे बाद में बबूल मुंडा, सेमर मुंडा (तालाब),ढोढिया (ढोढी) जैसे जलस्त्रोत बने होंगे नहर का मिटता निशान खेतों के रूप में आज भी मौजूद है ।कालांतर में जमीनों की सेटलमेटी के बाद बांध से मुतालुक नहर को लोगों ने भले ही खेतों के रूप में तब्दील कर दिया परन्तु बांध से जुड़े होने  की गवाही खेत खुद दे रहे हैं।
इसके अलावा बांध का नाम –
सतबहनी –  पड़ने के पीछे  भी अजीब वाकिया है बताया जाता है कि उस काल में जब  अधिक पानी के वजह से बांध फूटा तो नीचे नदी में स्नान कर रही सात बहने  (लड़कियां) पानी के तेज बहाव में बह गई थी जिससे बाध का नाम सतबहनी पड़ा। शायद यह लोगों की काल्पनिक  कहानी रही होगी। कोई नहीं जानता हकीकत क्या है। लेकिन आज भी सतबहनी बांध ही कहा जाता है।
कुछ लोगों का मानना है कि बांध का निर्माण कल्चुरी राजाओं ने या बाद के राजाओं ने करवाया था । अक्सर देखा गया है कि कल्चुरी राजाओं ने  अनेक स्थानों पर शिव मंदिर  तथा मूर्तियों का निर्माण करावाया था। इसके साथ सूखा अकाल पड़ने के भय से बांध तालाब जल सरोवरों का भी निर्माण करवाने के पीछे कल्चुरी हुक्मरानों को जोड़ कर देखा जाता है ।संभवत उन्हीं के द्वारा सातवाहनी जलाश्य का निर्माण कराया गया रहा होगा। 

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ताकि सूखा अकाल पड़ने पर जनजीवन प्रभावित न हो। कल्चुरी राजाओं द्वारा कराये गये कार्यो के कई प्रमाण अब भी  मिलते है। प्रचलित किंवदंतियों से यह भी पता चलता है कि बांध के नीचे बसा एक गांव था।उस बसाहट के लोग हैजा कालरा  जैसे महामारी के शिकार हो गये। बसा बसाया बस्ती उजड  गया । बचे खुचे लोगों ने उस जगह को छोड़ कर जूनाडीह  (जूना= पुराना ,              डीह = स्थान ) बस्ती बसाया और वहीं बस गये आज भी ग्राम पंचायत के शक्ल में जूनाडीह बस्ती बरकरार है। बांध के फूटने और बस्ती  उजड़ने के बाद  वह जगह  तथा शिवालय निर्जन विरान हो गये वैसे भी जंगल के इर्दगिर्द होने से सुनसान हो गया।  विरानियो ने बसेरा कर लिया।आज बांध के तमाम  भू-भाग काश्तकारों की नीजी होकर रह गई है।

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समय बदलने के साथ सातवाहनी बांध के मध्य खंड को पूजनीय स्थल बना कर पूजा अर्चना किया जाने लगा। प्रथा आज भी बरकरार है कुंवरपुर के ग्राम बैगा द्वारा आज भी  सतबहनी बांध के मध्य भाग में देवी देवताओं की पूजा अर्चना की जाती है। साथ कुछ धर्मावलंबी अग्रवाल समाज के लोगों ने शिवमन्दिर का भी निर्माण करवा दिया। कहते हैं इतिहास अपने को दोहराता है।

प्राचीनसतबहनी से प्रेरित होकर ठीक इसके उपर दो पहाडियो को जोड़कर कुंवरपुर जलाश्य शासन द्वारा बनाया गया है जो क्षेत्र के विकास में मील का पत्थर साबित हुआ है। उस जमाने में चुल्हट नदी पर बनाया गया सतबहनी बांध वाकई में बहुत खूबसूरत रहा होगा। खेतों में सिंचाई करने के लिए नहीं अपितु जीव जंतुओं के प्यास बुझाने  के दृष्टिकोण से बांध का निर्माण कराया गया रहा होगा।

बांध का अस्तित्व धीरे धीरे लुप्त होते जा रहा है । तकरीबन लुप्त हो चुका है नदी को भी लोगों ने खेतों में तब्दील कर दिया है।
सातवाहनी बांध के नीचे लखनपुर के बीच बहने वाली चुल्हट नदी के सतीघाट में सहायक छोटी बांध बनाईं गई थी जिसे (झोंकन) बांध कहते थे। सातवाहनी बांध के फूटने पर यह बांध भी फूटकर बर्बाद हो गया।  दोनों किनारों में मिट्टी का टिला अब भी लखनपुर के  झिनपुरी पारा वार्ड एवं बाजार पारा दोनों किनारों पर बाकी है परन्तु दोनों ओर मकान बना दिये गये है। लखनपुर वासी इस छोटै बांध के बारे में बखूबी जानते हैं।
सातवाहनी बांध आज़ भले ही नहीं है लेकिन क्षेत्र में लोगों के जुबान पर उससे जुड़ी दास्तां अब भी बाकी है।

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