छत्तीसगढ़

दसलक्षण महापर्व का आठवां दिन “उत्तम त्याग” धर्म के रूप में मनाया गया

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(शशि कोन्हेर) : बिलासपुर।   श्री दिगम्बर जैन समाज द्वारा श्री श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर से पधारे पंडित आशीष जी शास्त्री के सानिध्य में दसलक्षण महापर्व का आठवां दिन उत्तम त्याग धर्म के रूप में मनाया गया। पंडित जी ने अपने प्रवचन में त्याग की महत्ता के बारे में बताया। जिन्होंने धन, सम्पदा आदि परिग्रह को कर्म के उदय जनित पराधीन, विनाशीक, अभिमान को उत्पन्न करनेवाला, तृष्णा को बढ़ाने वाला, रागद्वेष की तीव्रता करने वाला, आरम्भ की तीव्रता करने वाला, हिंसादि पाँचों पापो का मूल जानकर इसे अंगीकार ही नहीं किया, वे उत्तम पुरुष धन्य हैं।

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दान धर्म का अंग है। जैसे नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता है, ईंधन से अग्नि तृप्त नहीं होती है उसी तरह परिग्रह से आशा की प्यास नहीं बुझती है। आशारूपी गड्ढा अगाध गहरा है, जिसका तल स्पर्श नहीं है। ज्यों – ज्यों इसमें धन भरो, त्यों -त्यों गड्ढा बढ़ता जाता है। किंतु ज्यो – ज्यों परिग्रह की आशा त्याग करो, त्यों – त्यों वह भरता चला जाता है अतः समस्त दुःख दूर करने में एक त्याग धर्म ही समर्थ है।

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त्याग ही से अंतरंग-बहिरंग बन्धन रहित अनन्त सुख के धारक बनोगे। अतः त्याग धर्म धारण करना ही श्रेष्ठ है। आगे उन्होंने कहा कि  त्याग के बिना कोई धर्म जीवित नहीं रह सकता। जिसने भी अपने जीवन में त्याग किया है वही चमकता है। धर्म और आत्मा को जीवित रखने के लिए त्याग आवश्यक है। समस्त भोग विलास की वस्तु का त्याग करना ही मुक्ति का मार्ग है।

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अपने जीवन में खराब कार्यों और पापों का त्याग करना चाहिए, तभी मनुष्य जीवन की सार्थकता है। इतिहास साक्षी है कि भगवान महावीर,  श्री राम आदि महापुरुष अपने त्याग धर्म के कारण है, जन-जन में पूजनीय और वंदनीय है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि जो वस्तु अपनी नहीं है, उसमें ‘मेरा’पना छोड़ना, त्याग कहलाता है। वह त्याग जब सम्यग्दर्शन के साथ होता है, तब ‘उत्तम त्याग धर्म’ कहलाता है। उन्होंने कहा कि कई जगहों पर त्याग को दान के पर्यायवाची शब्द की तरह प्रयोग किया जाता है। परंतु दोनों में कुछ अंतर इस प्रकार हैं: त्याग ‘पर’ (दूसरी) वस्तु की मुख्यता से किया जाता है, दान अपनी वस्तु की मुख्यता से किया जाता है। पर वस्तु हमारी न थी, न है और न होगी। हमने मात्र अपने ज्ञान में उसको अपना मान रखा है। त्याग, मात्र उसे ‘अपना मानना छोड़ना’ के भाव का नाम है। तथा, श्रावकों की मुख्यता से भी इसका कथन दान नाम से किया है।
उत्तम संयम धर्म के अवसर पर आयोजित सांध्यकालीन सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रम की शुरुआत आर्ची, मोना, अनुप्रिया, रिद्धिमा द्वारा मंगलाचरण से की गई। इस वर्ष दशलक्षण महापर्व के दौरान नए नए कार्यक्रम के माध्यम से धर्मप्रभावना करने का प्रयास किया जा रहा है। विगत दिनों जैन आगम के अनुसार राम का वनवास की प्रस्तुति दी गई थी, उसी श्रृंखला में सखी ग्रुप द्वारा उसके आगे की कड़ी : सीता की अग्नि परीक्षा की मनोहारी प्रस्तुति दी गई। इस नाटिका में श्वेता (राम), सीमा (सीता), निधि (लक्ष्मण), विधि (कथा वाचक), रंजीता (नारायण), ज्योति (सेनापति), सपना व सोनम (मंत्री), कुहू  व राव्या (लव-कुश),  अनु-मोना (द्वारपाल) निशा व तनु (फरियादी),  मनोरमा, भावना, शालिनी और रितु (सीता की सहेलियां) ने अपने अभिनय से नाटिका के किरदारों को जीवंत कर दिया। नाटिका के लिए पटकथा निर्देशन श्रीमती मंगला जैन ने किया।

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