बिलासपुर

दुर्गा पूजा:- मूर्तिकला संकट में….

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(आशीष मौर्य) : बिलासपुर – माँ शक्ति की आराधना का महापर्व 15 अक्टूबर से शुरू हो रहा है।मूर्तिकला को पूजा मानने वाले अब महंगाई के चलते इस व्यवसाय से अपने आप को अलग करते जा रहे है।क्योंकि मूर्तियों को जीवंत बनाने के लिए वे जो चरख रंग भरते है,उससे उनके जीवन का रंग उतरता जा रहा है

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शक्ति की आराधना का महापर्व नवरात्र की शुरुवात 15 अक्टूबर से प्रारंभ हो रहा है।कलकत्ता से आये इन कलाकारों को मूर्तिकला विरासत में मिली है,इनके पूर्वज भी मूर्तिकला को व्यवसाय की बजाय पूजा मानते थे,अब मूर्तिकला व्यवसाय बन गया है,लेकिन महंगाई की मार ने इसे भी अछूता नही छोड़ा,मूर्ति बनाने में मिट्टी,रेत पैरा कपड़ा और नकली जेवरों पर सर्वाधिक लागत आती है,आपको यह बता दे दुर्गा की जो प्रतिमाएं दिख रही है,वह कलकत्ता के गंगा किनारे की महीन मिट्टी से बनी है,इसकी खासियत यह है कि ये चमकदार होने के साथ साथ यह फटती नही,चूंकि प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा होती है,इसलिए इसके श्री विग्रह की पवित्रता का ध्यान भी मूर्तिकार रखते है,पर अब मूर्तिकला में मुनाफे सरीखी बात नही है,कलकत्ता के ये कलाकार मिट्टी सहित जरूरी सामग्रियां लेकर चार महीने पहले यहाँ आ जाते है,मूर्ति का ढांचा फिर मिट्टी का लेप और उसे सूखने में काफी समय लगता है,यहाँ सैकड़ो मूर्तिया है,इनमें से ज्यादार फिनिशिंग टच की स्थिति में है।

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छतीसगढ़ में दुर्गाउत्सव मनाने की परंपरा की अपनी अलग ही कहानी है,1890 में जब मुम्बई नागपुर और कोलकाता रेल लाइन बिछाई गई,उस समय रेलवे की नौकरी बंगलभाषियो को यहाँ खिंच लाई, उनके साथ उनकी परंपरा खासकर दुर्गा पूजा हमारी सांझी संस्कृति का हिस्सा बन गयी।


इसे वक्त का तगाजा कहे या नियति,पारंपरिक रूप से मिट्टी की प्रतिमाएं गढ़ने वाले कलाकार अब इस धंधे से खुद को अलग करते जा रहे है,क्योंकि मूर्तियों को जीवंत बनाने के लिए वे जो चरख रंग भरते है,उससे उनके जीवन का रंग उतरता जा रहा है, उसकी आंच भी पेट की आग बुझाने में असमर्थ है।

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